Thursday, January 17, 2013

छत पर

छत पर तुझे बाल झिटकते देखा, हुआ पहली बारिश का एहसास जैसे,,
बालों से लिपटती फिसलती बूँदें , जगाएं एक नयी प्यास जैसे।।
बिन काजल की बेचैन नजरें , मिलीं फिर चुरा ली गयीं,,
रह-रहकर झांक रही हैं अब , फिर से मिलने की हो आस जैसे।।
तुम्हारी आँखों में दिखती चाहत , और उस पर शर्माती बेचैन मुस्कुराहट ,,
घुल रहा हूँ इस नजारें में मैं  ऐसे, ज़िन्दगी पिला रही हो शराब जैसे।।
मेरी सुबहें और मेरी शामें , छत पर ही रहतें हैं आजकल,,
एक बार आ जाओ तो कह दूँ तुमसे, ख्यालों में है एक काश जैसे।।
छत पर दिखती नहीं तुम आजकल, कारण मैं जानता नहीं,,
दिल आधा अधूरा धड़कता है अब, अधूरी पड़ी है सांस जैसे।।
कैसे जुल्फें कैसी बरसातें, आती है ज़िंदगी जाती हैं यादें,,
चेहरा भी तुम्हारा भूलने लगा हूँ, खो रही हो तेरी याद जैसे।।

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