Wednesday, January 16, 2013

कैसे समझें

~ शर्म तुम्हारी अच्छी लगती है पर , हमसे ही शरमाओ अगर , तो  कैसे समझें ?
~ दूर  इतने हो कि  दिखते  नहीं तुम , कैसे हैं हालत उधर , ये कैसे समझें ?
~ देखना तुम्हे जरुरी सा लगता है, कि  अदाएं हैं तुम्हारी ये मेरे लिए , ये कैसे समझें ?
~ उठती गिरती पलकें तुम्हारी कुछ कहती रहती हैं , नज़र ही ना मिलाओ अगर तो कैसे समझें ?
~ क्यों चाहने लगा हूँ मैं की मैं तुम्हें चाहूँ , क्या ऐसी ही चाहत तुम्हारी , ये कैसे समझें ?
~ सारे ख्याल तुम से शुरू होकर तुम तक ही जाते हैं , अब ये  इश्क के ही हैं ज़ज्बात , ये कैसे समझें ?
~ इश्क के इकरार को पल भर ही काफी है , मिलो ही पल भर अगर , तो कैसे समझें ?
~ लगी है  आग इधर भी और उधर भी, लगी है  आग इधर भी और उधर भी, आती नहीं यहाँ तक आंच , तो        कैसे समझें ~~~

No comments:

Post a Comment